'द कॉलेज मस्ट स्टैंड, आर द एम्पायर मस्ट फॉल' [कॉलेज-फोर्ट विलियम-बना रहना चाहिए, अन्यथा साम्राज्य का पतन हो जाएगा।] 12अगस्त, 1802 को मार्क्विस वेलेजली द्वारा अपने मित्र डेविड स्काट को लिखे गए निजी पत्र से।[1]
फोर्ट विलियम कॉलेज, विलियम जोन्स द्वारा स्थापित 'एशियाटिक सोसाइटी' [15 जनवरी, 1874] के बाद शिक्षा के क्षेत्र अँग्रेजों द्वारा स्थापित किया गया दूसरा महत्वपूर्ण संस्थान है। इस संस्थान ने, ऐसा कहा जाता है, पहली बार व्यवस्थित आधुनिक शिक्षा का प्रारंभ हिंदुस्तान में किया। मार्क्विस वेलेजली द्वारा स्थापित और योजनानिबद्ध किया गया यह कॉलेज लगभग पचास वर्षों [1800-1854] तक शिक्षा के क्षेत्र में काम करता रहा। कॉलेज का अध्ययन करते हुए हम न केवल आधुनिक भारतीय शिक्षा के प्रति अँग्रेजों का दृष्टिकोण देख सकते हैं, वरन आधुनिक गद्य की उत्पत्ति और उस समय की भाषा-संबंधी नीति की भी समीक्षा कर सकते हैं जो आगे चलकर कैनन निर्माण में भूमिका निभाती रही।
'आधुनिकता' का जो रूप अँग्रेज यहाँ लेकर आए थे, वह किसी औद्योगिक बदलाव की नींव पर नहीं टिका था, न किसी ऐसे औद्योगिक बदलाव के कारण था जिसमें भारतीय सामाजिक संरचना में वर्गों का अंतर्विरोध के कारण कहा जा सके, वरंच हिंदुस्तान को औपनिवेशिक शोषण के लायक बनाने की आवश्यकताओं के कारण उपजा था। यहाँ स्थापित आधुनिकता के अलग प्रकार थे। एडवर्ड सर्इद से बहस करते हुए मार्क्स के इस कथन कि ब्रिटिश शासन भारत में 'इतिहास का अवचेतन औजार' है, को उसके समूचे परिदृश्य में रखते हुए एजाज अहमद ने कहा कि, "ब्रिटेन ने जो इतिहास असल में बनाया, उसके बाद इस तरह के 'अचेतन औजार' की चाह कौन करेगा?" [2] आगे उन्होंने यह भी कहा कि - "अब यह एकदम साफ है कि यह उपनिवेशवाद हमारे लिए कोर्इ 'क्रांति' नहीं लेकर आया था। बल्कि यकीनन इसने हमारे संकटग्रस्त समाज के सामने पिछड़ी हुर्इ संकल्पनाएँ प्रस्तुत की थीं। यह संकट अठारहवीं सदी में तकनीकि और उत्पादन में गतिरोध के रूप में सामने आया।" [3] डॉ. रामविलास शर्मा ने इस संदर्भ में बहस करते हुए अपनी किताब 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना' में इस धारणा को इन शब्दों में व्यक्त किया - "अपरिवर्तित ग्राम समाजों के देश भारत में अँग्रेजों ने आकर पहली बार सामाजिक क्रांति की - इस धारणा के आधार पर नए-पुराने भारतीय साहित्य का जो मूल्यांकन होगा, वह उसे अस्वीकारने के अलावा और कुछ कर नहीं सकता।" [4] रामविलास जी यहाँ न सिर्फ अपने उपनिवेशवादविरोध को स्थापित कर रहे हैं बल्कि वे परंपरा और आधुनिकता के संबंधों को एक नए धारातल पर रखने का यत्न भी कर रहे हैं।
सन 1800 आते-आते अँग्रेजों को अपने शासन को सुदृढ़ करने के लिए नए औजारों की जरूरत पड़ी। बंगाल का शासन हाथ में आ जाने के कारण अँग्रेजों की भाषा संबंधी मुश्किलें और बढ़ गर्इं थीं। इस कारणवश फारसी, जो कि तब तक चली आ रही राज-काज की भाषा थी, अँग्रेजों के लिए अपर्याप्त साबित होने लगी। ऐसे में देशीभाषा के शिक्षण की राजनैतिक जरूरत के कारण ऐसी संस्था की जरूरत महसूस की गर्इ जो अँग्रेज अधिकारियों को शिक्षित करे। अँग्रेजों की शिक्षा संबंधी गतिविधियों की यही आधारशिला थी। 10 जुलार्इ, 1800 को कॉलेज स्थापना के संदर्भ में वेलेजली ने नोटस लिखे, जो कॉलेज स्थापना के मूल उद्देश्यों को भलीभाँति रेखांकित करते हैं - "विभिन्न भाषा-भाषी और आचार, रूढ़ियों एवं धर्मों का अनुसरण करने वाली असंख्य जनता के साथ न्याय बरतना, विस्तार में यूरोप के कुछ बड़े-बड़े राज्यों की बराबर जिलों में भारी और पेचीदा मालगुजारी प्रथा को व्यवहार में लाना, सं सार के सबसे अधिक घने बसे हुए और झगड़ालू भूमि भागों में शांति बनाए रखना, यही अब कंपनी के अधिकतर कर्मचारियों का काम है... कंपनी की पूँजी का उस समय तक अपने को अधिक से अधिक लाभ और प्रतिष्ठा के साथ, या प्रजा के साथ यथेष्ट न्याय कर संचालन नहीं हो सकता जब तक कि उसके तिजारती एजेंट राजनीतिज्ञ के... गुणों से विभूषित न हों। ...कारीगरों तथा श्रमिक वर्ग के अन्य लोगों का उत्पादक परिश्रम ही हमारी पूँजी का मूल श्रोत है। ...यदि वे [ब्रिटिश कर्मचारीद्ध देशी भाषा, जनता की रीति-रस्म और आचार के साथ-साथ देश के कायदे-कानून से परिचित होंगे... इसलिए र्इस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी किसी प्रकार भी एक व्यापारिक संस्था के एजेंट नहीं समझे जा सकते। वास्तव में वे एक शक्तिशाली राज्य के प्रतिनिधि हैं... इसलिए उनका अध्ययन, शिक्षाक्रम, आचरण, आचार-विचार, और चरित्र इस प्रकार विकसित और उन्मुख किए जाने चाहिए... उन्हें भारतीय धर्मशास्त्र और शरअ मुहम्मदी और धर्मनीति और एशिया में ग्रेट ब्रिटेन के राजनैतिक और व्यापारिक हितों और संबंधों की शिक्षा सहित भारतीय इतिहास, भाषाओं, रीति-रस्मों और आचारों से भलीभाँति परिचित करा देना चाहिए। ...शुरू से ही उनके मन में परिश्रम, दूरदर्शिता, सच्चार्इ और धर्म की पक्की नींव डालनी चाहिए, जिसके सहारे वे यहाँ जहाँ कहीं किसी भी हालत में होने और खास तौर पर भारत में पहले पहल आने पर यहाँ के जलवायु और लोगों के अजीब भ्रष्टाचरणों से उत्पन्न प्रलोभनों और कुव्यसनों से अपने को बचा सकें। सरकारी कर्मचारियों के प्रारंभिक अनुशासन द्वारा उनको यहाँ के जलवायु और लोगों के कुव्यसनों और प्रवृत्तिजन्य आलस्य, ऐयाशी और शोहदेपन से बचाना हमारा ध्येय होना चाहिए..." [5]
इस उद्धरण से प्रथमतः तो अँग्रेज सरकार की भारतीय जनता और हिंदुस्तान के बारे में दृष्टि का पता चलता है। यह वही दृष्टिबिंदु है जहाँ पश्चिम न्याय, सभ्यता और सत्य जैसे गुणों का प्रचारक है और भारत आलसियों, ऐयाशों, शोहदों, भ्रष्टाचारियों और पिछड़े लोगों का देश। बहुत ही साफ शब्दों में वेलेजली इस कॉलेज और शिक्षा को अँग्रेज साम्राज्य के हितों के लिए गढ़ना चाहते हैं। अजीब भ्रष्टाचार और कुव्यसनों वाले देश भारत पर राज करने के लिए जिस 'सच्चार्इ, दूरदर्शिता, न्याय और धर्म की आवश्यकता थी, कॉलेज उसे पूरा कर सकता था। इसी वैचारिक आधारभूमि के साथ स्थापित कॉलेज को हमारी भाषा का 'आधुनिक रूप गढ़ना था, और उससे भी आगे आलोचनात्मक 'गद्य का। 'आधुनिकता का यह रूप तब और किसी तरह का हो भी नहीं सकता था, जैसा आज इतिहास में इतनी दूरी तय करने के बाद हम देख पाते हैं। इसीलिए बार-बार राष्ट्रवादी चिंतकों-आलोचकों के स्वर इन विषयों की चर्चा करते हुए व्यंग्य से भर उठते हैं, और बार-बार वे कर्इ विषयों पर अपनी असहमतियाँ दर्ज कराते हैं। उदाहरण के लिए कॉलेज को 'नए गद्य ग्रंथों के, खड़ी बोली गद्य के उन्नायक संस्थान के रूप में देखने की बात से वे अपनी असहमति दर्ज करते हैं।
डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने लिखा - "कॉलेज के संरक्षण में निर्मित हुए खड़ी बोली गद्य ग्रंथों के पूर्व हिंदी में खड़ी बोली गद्य ग्रंथों की रचना हो चुकी थी।" [6] डॉ. वार्ष्णेय का यह निष्कर्ष नया नहीं है। आचार्य शुक्ल ने भी अपने इतिहास में इस तर्क को प्रमुखता से अंकित किया है - "अतः यह कहना कि अँग्रेजों की प्रेरणा से ही हिंदी खड़ी बोली गद्य का प्रादुर्भाव हुआ, ठीक नहीं है।" [7] इस क्षोभ के संदर्भ में शुक्ल जी की टिप्पणी, जो उन्होंने प्रारंभिक 'गद्य उन्नायकों' के संदर्भ में व्यंग्य करते हुए करते हुए की है, उद्धरणीय है - "मुंशीजी [सदासुखलाल] ने यह गद्य न तो किसी अंगरेज अधिकारी की प्रेरणा से और न किसी दिए हुए नमूने पर लिखा।" [8] देखा जा सकता है कि शुक्ल जी 'अंगरेज अधिकारी की प्रेरणा पर लिखे गए को कितना महत्व देते हैं! पर समस्याएँ दूसरे स्थानों पर हैं। इस निष्कर्ष के बावजूद जब हिंदी-उर्दू के प्रसंग में बहस सामने आती है, आचार्य शुक्ल र्इसार्इ मिशनरियों की संस्कृतनिष्ठ हिंदी की तारीफ करते नहीं थकते। और डॉ. वार्ष्णेय कहीं कॉलेज को आधुनिकता का प्रतीक बताते हैं तो कहीं वेलेजली की प्रशंसा करते हैं, जो उन्हीं के शोधपूर्ण ग्रंथ से निकलने वाले निष्कर्षों पर संगत नहीं उतरती। डॉ. वार्ष्णेय ने लिखा - "भारत में अँग्रेजी राज्य और आधुनिकता के प्रतीक स्वरूप फोर्ट विलियम कॉलेज का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।" [9] और वेलेजली की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि - "किसी भी रूप में विद्या-दान करने वाले को यदि संसार के इतिहास में यश प्राप्त हो सकता है तो वेलेजली पूर्ण रूप से उसके भागी हैं। अपनी हृदयगत प्रिय आयोजना को मूर्त रूप देने के लिए जो बीज उन्होंने बोया था उसमें विशाल वटवृक्ष छिपा हुआ था।" [10] वेलेजली, अँग्रेजी राज और र्इसार्इ मिशनरियों के प्रति यह प्रशंसा हमारे अपने राष्ट्रीय जागरण की चिंतनधारा की एक विशिष्ट गुत्थी का हिस्सा है जो आलोचनात्मक कैननों में बहुध अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त हुर्इ है।
प्रसंगतः कॉलेज में जान गिलक्राइस्ट हिंदुस्तानी विभाग में अध्यक्ष की भूमिका में थे। कॉलेज की विधिवत स्थापना के पूर्व ही वे 'बंगाल सेमिनरी के माध्यम से अँग्रेजों को शिक्षा देने का काम कर रहे थे। अतः उन्होंने फारसी के अलावा देशी भाषाओं की शिक्षा की औपनिवेशिक जरूरत को पूरा करने का बीड़ा उठाया। चिंता वही थी, शिक्षा के माध्यम से साम्राज्य को और स्थायी और संगत बनाना। एजाज अहमद ने उर्दू के प्रसंग में इस कॉलेज और गिलक्राइस्ट की मंशा को रेखांकित किया है - "उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों के आख्यान गिलक्राइस्ट और स्काटसमैन के आग्रहों पर लिखे गए। उन्होंने अपने दायरे, अँग्रेजों के बीच यह तर्क दिया कि र्इस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी सिर्फ फारसी या अँग्रेजी के बल पर हिंदुस्तान में अपना कब्जा बरकरार नहीं रख पाएँगे। ऐसे में 1800 में ब्रिटिशों की भारतीय भाषाओं में शिक्षा के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गर्इ। शुरू के दिनों में कॉलेज में पढ़ार्इ जाने वाली भाषाओं में फारसी सबसे लोकप्रिय थी। पर गिलक्राइस्ट अपनी कल्पना देशी भाषा के विद्वान के रूप में करते थे। इन भाषाओं में उर्दू भी शामिल थी। तो उन्होंने अपने मन-मुताबिक लिखवाने के लिए देशी भाषा के कुछ काबिल विद्वानों को लगाया।" [11] अपनी औपनिवेशिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गिल क्राइस्ट ने 'हिंदुस्तानी' में ग्रंथ तैयार करवाए। इन ग्रंथों में गिलक्राइस्ट अपनी भाषा की समझ भी आरोपित कर रहे थे। यह भाषा की समझ उनकी 'मन-मुताबिक' औपनिवेशिक योजना का हिस्सा थी।
ये वही गिलक्राइस्ट हैं जिन्होंने अपनी किताब 'द ओरियंटल लिंग्विस्टिक्स' में अपना भाषा ज्ञान जताते हुए लिखा था - "...हिंदुस्तान [Hindoostan] एक संयुक्त शब्द है और इसका अर्थ है 'हिंदुओं का देश' या 'नीग्रो लोगों का देश' ...इस देश के मुख्य वासी हिंदू और मुसलमान हैं... इनकी भाषा को हम बेखटके, एक साधारण व्यापक शब्द में 'हिंदुस्तानी' कह सकते हैं... निस्संदेह यहाँ के रहने वाले और दूसरे लोग भी इसे 'हिंदी' अर्थात Indian कहते हैं मानो इस नाम को हिंद से निकला हुआ बताते हैं। ...लेकिन इस नाम में मुश्किल यह है कि इसे 'हिंदुवी [Hinduwee] या 'हिदूर्इ [Hindooee], हिंदवी [Hindvee] का आभास होता है। ये शब्द हिंदू से निकले हैं अतः ...इस देश की भाषा के लिए हमें और सब नाम स्थायी रूप से त्याग देने चाहिए। ...हमें केवल 'हिंदुस्तानी' कहना चाहिए। ...यहाँ के लोग इसे 'हिंदुस्तानी' नाम दें या न दें [इसका महत्व नहीं], क्योंकि इन लोगों में विभेद करने की क्षमता उपयुक्त दर्जे की नहीं है और अगर उपयुक्तताओं और पाबंदियों का ओर उनका ध्यान आकर्षित किया भी जाए तो वे इनको क्रियान्वित नहीं कर सकते। 'हिंदुवी' [Hinduwee] को मैं पूर्णरूप से हिंदुओं की संपत्ति करार देता हूँ। ...यह वह भाषा है जो मुस्लिम आक्रमण से पहले प्रचलित थी।" [12]
जिस दुराग्रहपूर्ण आधिपत्य की भाषा गिलक्राइस्ट बोल रहे थे, और जिसमें हिंदुस्तान को जिस 'लेने वाले छोर' पर निष्क्रिय बैठा दिया गया था, उसका जवाब देते हुए शम्सुरर्हमान फारुक़ी ने लिखा - "आपने देखा कि हमारे गिलक्राइस्ट बहादुर ने किस तरह हँसते-खेलते और किस अंदाजे-बेपरवाही से यह घोषणा कर दी कि वे स्थानीय लोगों [Natives] की ओर से फैसला कर सकते हैं, क्योंकि बेचारे Native में इतनी समझ कहाँ है कि वे विवेक बरत सकें और अपना अच्छा-बुरा स्वयं जान सकें। हिंदुस्तानी लोग अपनी भाषा को हिंदी कहते हैं तो कहें, लेकिन अँग्रेज की बुद्धि कहती है कि हिंदी से 'हिंदू' का आभास मिलता है, इसलिए यह नाम ठीक नहीं। स्वयं गिलक्राइस्ट साहब के ज्ञान का हाल यह है कि वे 'हिंदवी' को न केवल विशेष रूप से हिंदुओं की संपत्ति करार देते हैं, बल्कि वे इसे ऐसी भाषा कहते हैं, जो हिंदुस्तान में 'मुसलमानों' के आक्रमण से पहले प्रचलित थी। [कौन से 'आक्रमण' से पहले, इसका स्पष्टीकरण वे नहीं करते]। इस पर तुर्रा यह कि वे फारसी भाषा और इसके बोलने वालों पर यह झूठा आरोप भी लगाते हैं कि फारसी में हिंदू का अर्थ नीग्रो होता है। ...उनको यह मालूम नहीं कि 'हिंदुवी' कोर्इ अलग भाषा नहीं, बल्कि 'हिंदी/हिंदुस्तानी' का ही एक नाम थी। और न ही इस भाषा का संबंध मुसलमान आक्रमणकारियों से है।
लेकिन अँग्रेजों को इस देश में अपनी राजनीति चलानी थी। उन्हें वास्तविकताओं से लगाव था, लेकिन उसी हद तक जिस हद तक उनके राजनीतिक उद्देश्यों और तथ्यों में कोर्इ विसंगति न हो। 'हिंदी' को हिंदुस्तानी का नाम देने और हिंदी/हिंदवी को हिंदुओं की झोली में डाल देने के प्रयास गिलक्राइस्ट के पहले से हो रहे थे। अंतर बस यह है कि गिलक्राइस्ट की बातों को अधिक लोकप्रियता फोर्ट विलियम कॉलेज के कारण मिली।" [13]
यही गिलक्राइस्ट कॉलेज के कर्ता-धर्ता बने और इसी वैचारिक भूमि पर देशभाषा में पुस्तकें तैयार करवार्इं, बाद में जिनको आधुनिक गद्य की प्रारंभिक पुस्तकों की तरह देखा गया। खासतौर पर लल्लूलाल की किताब 'प्रेमसागर' का जिक्र इसलिए आवश्यक है कि 'साहब के कहने के मुताबिक' इस ग्रंथ की भाषा बनार्इ गर्इ थी। स्वयं लल्लूलाल की आत्मकथा में इसका उल्लेख इन शब्दों में है - "एक दिन साहिब ने कहा कि ब्रजभाषा में कोर्इ अच्छी कहानी हो तो उसे रेखते की बोली में कहो।" [14] यह वही 'रेख्ते' की बोली है जो फारुक़ी के मुताबिक - "...उत्तर में 'रेख्ता' और 'हिंदी' हमारी भाषा के नाम की हैसियत से समान रूप से लोकप्रिय थे।" [15] गवाही के लिए क़ाइम चाँदपुरी [1724-1795] के इस शेर को भी देखा जा सकता है -
क़ाइम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वरना
एक बात लचर-सी ब ज़बाने दकनी थी [16]
इस शेर संबंधी दूसरी बहसों को छोड़ भी दें तो कम से कम यह यह अवश्य सिद्ध करता है कि 'रेख़्ता' ही उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा रही होगी। लल्लूलाल से गिलक्राइस्ट ने इसी भाषा में लिखने को कहा, ऐसा लल्लूलाल लिखते हैं। 'प्रेमसागर' के पूर्व लिखे गए ग्रंथों, जिनकी चर्चा हम यहाँ कर रहे हैं, उनकी भाषा को शुक्ल जी ने निर्णयात्मक स्वरों में 'उर्दू' कहा है। तब उनके तर्क विन्यास के अनुसार अँग्रेजों ने उर्दू को वरीयता दी। पर 'प्रेमसागर' की भाषा से शुक्ल जी न्यूनाधिक संतुष्ट हैं, क्योंकि उसमें विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं है। यह किताब भी ठीक उसी प्रक्रिया में लिखी गर्इ थी, जिसमें 'माधवविलास' आदि चार पुस्तकें, जिनकी भाषा शुक्ल जी को ठीक नहीं लगी। शुक्ल जी के तर्क के अनुसार अगर देखा जाय तो अँग्रेज प्रेमसागर के समय 'हिंदी' को उर्दू पर वरीयता दे रहे थे। शुक्ल जी इसके लिए अँग्रेजों की प्रशंसा करते हैं पर इसके उलट के लिए उनकी बुरार्इ। [17] जबकि ये दोनों वरीयताएँ अँग्रेजों की सोची-समझी रणनीति का ही रेखांकन करती हैं।
संदर्भतः कॉलेज के माध्यम से गिलक्राइस्ट उस समूचे औपनिवेशिक चिंतन को व्यक्त करते हैं, जिसकी आधारभूमि पर आगे चलकर तासी, ग्रियर्सन और अन्य पश्चिमी साहित्यालोचकों ने कैनन बनाए। इस का एक नमूना फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ाए जाने के लिए विषयों के चयन में भी मिलेगा। विषयों की सूची निम्नवत थी - "अरबी, फारसी, संस्कृत, हिंदुस्तानी, बंगला, तैलंग, महाराष्ट्री, तमिल, कन्नड़ : अन्य विषयों में शरअ मुहम्मदी, भारतीय धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र, अंतर्राष्ट्रीय कानून, भारत में ब्रिटिश राज के... कायदे कानून : राजनीतिक अर्थशास्त्र, और विशेष रूप से र्इस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक संस्थाएँ और उनका हित : भूगोल और गणित, यूरोप की आधुनिक भाषाएँ, ग्रीक, लैटिन और प्राचीन अँग्रेजी साहित्य [क्लैसिक], प्राचीन और आधुनिक सामान्य इतिहास, हिंदुस्तान और दक्षिण का इतिहास और पुरातत्व, प्रकृति विज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, रसायनशास्त्र, और ज्योतिषशास्त्र।" [18] इस विषय-सूची में भी अन्य विषयों के अलावा 'र्इस्ट इंडिया कंपनी के हित' भी शामिल है। जिस कॉलेज में औपनिवेशकों को लूट और राज करने की कला सिखार्इ जाती हो, वहाँ हिंदुस्तानी आम जनता में बँटवारा पैदा कर उन्हें लड़ा देने के अलावा और क्या संभव था? यही हुआ और खासतौर से भाषा-विवाद के माध्यम से उन्होंने अपने आलोचनात्मक कैनन खड़े किए।
प्रारंभिक पश्चिमी साहित्येतिहासकारों के आलोचनात्मक कैनन
[ तासी, ग्रियर्सन, फ्रैंक र्इ. के आदि]
"भारतीय भाषाओं के साहित्य के अध्ययन-मूल्यांकन की आधुनिक शैली का विकास योरोप के पौर्वात्यविदों ने किया। अब जबकि पौर्वात्यवाद के राजनीतिक अभिप्राय प्रकट हो चुके हैं, कहना अनावश्यक है कि यह सारा अध्ययन केवल पौर्वात्य प्रेम और प्रभाव में ही नहीं किया गया है: बल्कि इसके इतर उद्देश्य भी रहे हैं।" [19] सदानंद शाही के इस कथन में 'पौर्वात्य' पर बहुत जोर है इसलिए यहाँ एक बात साफ कर देनी जरूरी है। अँग्रेजों या पाश्चात्य विद्वानों के किए आलोचनात्मक व्यवहारों को 'पौर्वात्यवादी' कहना निश्चय ही हमारे अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को ढक नहीं देता और न ही उनके 'औपनिवेशक' व्यवहारों को। प्रश्न विश्लेषण के औजारों का है। औपनिवेशकों के द्वारा की गर्इ क्रूरताओं को 'अन्य' और 'स्वयं' के खाके में रखकर देखने की बजाय यहाँ पूँजी का आधिपत्य स्थापित करने वाली राजनैतिक कोटि 'उपनिवेशवाद' को बरतने का प्रयत्न किया गया है, क्योंकि एडवर्ड सर्इद के 'ओरियंटलिज्म' की सीमाएं भी हैं। [20] चूँकि हिंदी आलोचना के आरंभिक कैनन इन्हीं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा गढ़े गए, इसलिए उनके द्वारा लिखित ग्रंथों को आधार के रूप में लिया गया। इन कैननों का वैचारिक आधार उपनिवेशवाद से निर्मित होता है न कि 'पौर्वात्यवाद' से।
इस खंड में हिंदी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास लेखन में बन रहे कैनन लक्ष्य हैं। इस खंड में 'हिंदुर्इ साहित्य का इतिहास' जो कि तासी की लिखी किताब 'इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदुर्इ ऐ ऐंदुस्तानी' का हिंदी अनुवाद है, का मूलस्रोत के बतौर इस्तेमाल किया गया है। लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने 1953 में इस पुस्तक के हिंदी खंड का अनुवाद हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद से छपवाया। इस किताब में सिर्फ तासी के मूल ग्रंथ के हिंदवी खंड का ही अनुवाद है, उर्दू का नहीं। अनुवाद की इस चयनधर्मिता पर बहस करने की जगह यहाँ इस किताब के मूल आशयों तक पहुँचना अधिक प्रासंगिक होगा। दूसरी पुस्तक है - 'हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास' जो कि डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन कृत के 'द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान' [21], का किशोरीलाल गुप्त द्वारा किया गया अनुवाद है। इस संदर्भ में तीसरी मूल पुस्तक फ्रैंक र्इ. के लिखित 'ए हिस्ट्री ऑफ हिंदी लिटरेचर' है, जिसका हिंदी अनुवाद सदानंद शाही ने किया है।
5 अप्रैल 1839 में पेरिस में अपनी पुस्तक 'इस्तवार द ल लितरेत्यूर ऐंदुर्इ ए ऐंदुस्तानी' की भूमिका लिखते हुए हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखक फ्रेंच विद्वान गार्सां द तासी के 'इतर उद्देश्य' साफ पता चलते हैं। उनकी इस प्रारंभिक पुस्तक से हम तत्कालीन साहित्येतिहास और छिटपुट बिखरे आलोचनात्मक लेखन में साथ ही रचे-बसे औपनिवेशिक दबावों की थाह पाते हैं। उनकी इस पुस्तक में तत्कालीन सत्ता-विमर्शों की सांस्कृतिक झलक भी देख सकते हैं। तासी ने अपने साहित्येतिहास का प्रारंभ इस समर्पण से किया - "यह नितांत स्वाभाविक है कि मैं साम्राज्ञी से एक ऐसा ग्रंथ समर्पित करने का सम्मान प्राप्त करने की प्रार्थना करूँ जिसका संबंध आपके राजदंड के अंतर्गत आए हुए इस विस्तृत और सुंदर देश, और जो इतना खुशहाल कभी नहीं था जितना वह इंगलैंड के आश्रित होने पर है, के साहित्य के एक भाग से है। यह तथ्य सर्वमान्य है... जिस ब्रिटिश शासन के अंतर्गत न तो लूट का भय है और न देशी सरकारों का अत्याचार है... राजकुमारी के मंगल सिहासनारूढ़ होने का समाचार सुनकर, देशवासियों को अपनी प्रिय सुल्ताना रजिया का स्मरण करना पड़ा। वास्तव में विक्टोरिया रानी में उन्होंने रजिया का तारुण्य और अलभ्य गुण फिर पाए हैं: और केवल यही बात उनका उस देश के साथ संबंध और भी दृढ़ बना सकती है जिसके उनका अधीन होना र्इश्वरेच्छा थी।" [22] इस समर्पण के अंत की भाषा भी गौरतलब है - "मैं हूँ, अत्यधिक आदर सहित, देवि, साम्राज्ञी, अत्यंत तुच्छ और अत्यंत आज्ञाकारी दास, गार्सां द तासी।" [23]
इस समर्पण का लेखक हिंदी साहित्य का पहला इतिहास लेखक है। समर्पण से लेखक की अवस्थिति का पता चलता है कि कहाँ से खड़ा होकर वह हिंदुस्तानी साहित्य के आधुनिक रूप, साहित्येतिहास पर चर्चा कर रहा है। भारत की गुलामी का पश्चिम के नजरिये से किया गया यह पाठ हिंदुस्तान के बारे में इतिहास के दायरों में प्रचलित प्राच्यवादी पाठों की तरह ही पश्चिम को कर्ता और पूर्व को अकर्मक की श्रेणियों में विभक्त कर देता है और औपनिवेशिक आधिपत्य के लिए सांस्कृतिक अस्त्रों का उपयोग करता है। अर्थात भारतीय अपने सुंदर [इसका अर्थ हुआ प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर] देश का खुद ख्याल नहीं रख सकते। तब इस असभ्यता के खात्मे के लिए पश्चिम की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस देश को शासित करे। यह देश जो कि इससे पहले इतना खुशहाल कभी नहीं था अर्थात हिंदुस्तानी राजत्व काल में, जिनमें हिंदू, मुसलमान और अन्य धर्म संप्रदाय शामिल हैं, बरबाद किया जाता रहा। तब तक चूँकि 1857 का स्वाधीनता संग्राम भारतीयों द्वारा नहीं लड़ा गया था, इसलिए कोर्इ भी तासी के ग्रंथ में हिंदू-मुस्लिम धर्म संप्रदायों को लेकर उतनी कड़ी विभेदक रेखाएं नहीं देखेगा, जैसी कि कालक्रम में क्रमश: इसी पुस्तक के अन्य संस्करणों में भी बढ़ती गर्इं। गौर करने की बात इस संस्करण में यह है कि तासी इस समर्पण में महारानी विक्टोरिया की तुलना रजिया सुल्ताना से करते हैं। यहाँ तासी अँग्रेजी उपनिवेशकों की मुसलमानी शासन के बारे में धारणा को व्यक्त कर रहे हैं। एक तरफ वे ब्रिटिश शासन को पहले की सारी राजव्यवस्थाओं की लूट और अत्याचार से मुक्ति प्रदाता के रूप में चिन्हित करते हैं, वहीं दूसरी ओर नैतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के कारण भारत के इतिहास से अपना संबंध रजिया सुल्ताना के जरिए जोड़ते हैं। सत्ता की सर्वस्वीकार्यता के लिए 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के साथ संस्थाबद्ध हुए इस सांस्कृतिक अभियान को तासी का नजरिया और अधिक व्याख्यायित करता है। ठीक-ठीक ऐसे ही जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन भी अपने साहित्येतिहास के 'मुगल दरबार' शीर्षक अध्याय में लिखते हैं - "यह देखा जा सकता है कि अकबर बादशाह का शासन काल और इंग्लैंड का महारानी एलिजाबेथ का शासनकाल प्रायः एक ही है और इन दोनों शासकों के शासनकाल साहित्यिक प्रतिभा के एक असाधारण एवं अभूतपूर्व स्पफुरण से परिपूर्ण हैं..." [24] यहाँ देखा जा सकता है कि सांस्कृतिक क्षेत्र में शासन की संबद्धता और राजनैतिक क्षेत्र में उसका पिछड़ापन सिद्ध करना अँग्रेजी नीति के एक ही सिक्के के दो पहलू थे जिनका साफ उद्देश्य उपनिवेशित देश पर आधिपत्य था।
इस समर्पण के अंत में तासी अँग्रेजों और हिंदुस्तानी जनता के संबंध को धर्म के आधार पर जोड़ते हैं। भारतीय गुलामी को 'र्इश्वरेच्छा' बताना औपनिवेशिक सांस्कृतिक अभियान के हिस्से के बतौर देखा जाना चाहिए। आगे चलकर धार्मिक रूप से अँग्रेज उपनिवेशकों ने विभाजन की जो खार्इयाँ राजनीतिक-सांस्कृतिक धारातल पर तैयार कीं, उसकी पृष्ठभूमि यहाँ रेखांकित की जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रारंभिक हिंदी साहित्येतिहास और आलोचना के कैननों में धर्म की उपस्थिति साफ-साफ देखी जा सकती है। देशी आलोचना की व्यवस्थित शुरूआत के बाद भक्तिकाल एक संदर्भबिंदु की तरह हमेशा आलोचना के कैनन में शामिल रहा, भले ही उसके आधार बदलते रहे हों। धार्मिकता का यह संदर्भबिंदु औपनिवेशिक विचारकों द्वारा धर्म के आधुनिक राजनैतिक प्रयोग का है। धर्म और राज्य के अलगाव की बजाय यह 'आधुनिक' दृष्टि धर्म को बरतती रही। इस मामले में अगर हम धर्म के प्रति आग्रह को कैनन के एक आधार के रूप में चिन्हित करें तो औपनिवेशिक चिंतन और प्रारंभिक आधुनिक भारतीय सांस्कृतिक चिंतन में एक तारतम्यता देख सकते हैं। यह दृष्टि तब व्यवस्थित होती है जब 'धर्म' को भक्तिकालीन कविता का मूलस्वर अस्वीकार कर उसके आंदोलनात्मक-सामाजिक आयामों पर चर्चा प्रारंभ होती है।
तासी के इतिहास के अन्य संस्करणों की भूमिकाओं की तुलना करने पर इस दृष्टिबिंदु का और अधिक पता चलता है। यहाँ उस बड़े भाषा-विवाद के प्रारंभिक रूप का आभास मिलता है जो आज तक उलझी हुर्इ गुत्थी बना हुआ है। 1839 में अपनी पुस्तक की पहली जिल्द की भूमिका में तासी तत्कालीन भाषा की अनुवांशिकी तलाशते हुए कहते हैं - "भारत के प्राचीन साम्राज्य में जिसका विकास हुआ उसे सामान्यतः भाषा या भाखा, और विशेषतः 'हिंदवी या 'हिंदुर्इ [हिंदुओं की भाषा], के नाम से पुकारा जाता है।... दिल्ली में पठान वंश की स्थापना के समय, हिंदुओं और र्इरानियों के पारस्परिक संबंधों के फलस्वरूप, मुसलमानों द्वारा विजित नगरों में विजयी और विजित की भाषाओं का एक प्रकार का मिश्रण हुआ। प्रसिद्ध विजेता तैमूर के दिल्ली पर अधिकार प्राप्त कर लेने के समय यह मिश्रण और भी स्थायी हो गया। सेना का बाजार... यहीं पर खासतौर पर हिंदू-मुसलमानों की नर्इ मिश्रित भाषा बोली जाती थी : साथ ही उसे सामान्य नाम 'उर्दू' भाषा भी मिला, यद्यपि कविगण उसे 'रेखता' [मिश्रित] के नाम से पुकारते हैं। ...नर्मदा के दक्षिण में... हिंदू-मुसलमानों की मिश्रित भाषा ने एक विशेष नाम 'दक्खिनी' ग्रहण किया।... यद्यपि शब्दों के चुनाव में ये बोलियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, तो भी उचित बात तो यह है कि वे अपनी-अपनी वाक्य रचना पद्धति के अंतर्गत एक ही और एक समान बोलियाँ हैं, और वे हमेशा 'हिंदी' या 'हिंद' की के अनिश्चित नाम से तथा यूरोपियन लोगों द्वारा 'हिंदुस्तानी' के नाम से पुकारी जाती है..." [25] यहाँ तासी हिंदुस्तानी के दो उपविभाजनों की ओर इशारा करते हैं- पुरानी हिंदुस्तानी और आधुनिक हिंदुस्तानी। हिंदुस्तानी को संस्कृत की उत्तराधिकारी भाषा बताते हुए वे आधुनिक हिंदुस्तानी के दो उपभेद करते हैं - उत्तरी और दक्षिणी, फिर उत्तरी के उपभेद करते हुए उसे उर्दू [मुसलमानों द्वारा बोली जाने वाली] और ब्रज [हिंदुओं द्वारा व्यवहृत] में बाँटते हैं। आगे 'हिंदुस्तानी' की अभिव्यंजना शक्ति की तारीफ करते हुए वे उसे अरबी, फारसी और तुर्की, तीनों के गुणों से समृद्ध बताते हैं। ऐतिहासिक रूप से बाद में खोजे गए तथ्यों को छोड़ भी दें तो तासी के इस भाषा वर्णन में ब्रिटिश अधिकारियों को भाषा का इतिहास बताने का ही अभिप्राय दिखार्इ देगा। इस अभिप्राय में औपनिवेशिक हित तो दिखार्इ देंगे परंतु यहाँ सांप्रदायिक आधार उतने गहरे और स्पष्ट नहीं हैं। अगले संस्करण की भूमिका में तासी ने जो कुछ जोड़ा उससे राजनीतिक रूप से बदलते परिदृश्य के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए।
दूसरे संस्करण [1870] की भूमिका भी इसी भाषा विवाद के उलझा देने वाले प्रश्न से होती है, पर अबकी बार इस संस्करण में प्रस्तावना जोड़ दी गर्इ। प्रस्तावना में अव्वल तो कुछ नवीन ग्रंथों की प्राप्ति सूचित की गर्इ है और फिर हिंदुस्तानी के उद्भव संबंधी मुंशी जमालुद्दीन के 24 नवंबर, 1868 के 'अवध अखबार' में छपे तज़किरे का जवाब दिया गया है। यहाँ इस संस्करण में तासी, सैयद अब्दुल्लाह के सिंहासन बत्तीसी के संस्करण की भूमिका का जिक्र भी इसी भाषा विवाद के सिलसिले में करते हैं। इस संस्करण की भूमिका में बाजारों की भाषा का भी जिक्र किया गया है। पिछले संस्करण की भूमिका से अलग इस संस्करण में भाषा की राजनीति साफ-साफ दिखलार्इ पड़ती है। तासी के बदलते रुख को इस उद्धरण से गुजरते हुए देखा जा सकता है - "जब तक मुसलमानी राज्य जारी रहा... राज्य की सरकारी भाषा फारसी थी। बहुत दिनों तक अँग्रेजी सरकार ने इसी इसी नीति का पालन किया, परंतु भारत में इस विदेशी भाषा के प्रयोग के फलस्वरूप उत्पन्न कठिनाइयों का अनुभव कर, उन्होंने 1831 में, लोगों के हित के लिए विभिन्न प्रांतों की सामान्य भाषाओं को स्थान दिया, और स्वभावतः उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम प्रांतों के लिए अपना ली गर्इ। यह सुंदर कार्य सबको पसंद आया, और अगले तीस वर्षों में इस व्यवस्था को पूर्ण सफलता मिली है तथा कोर्इ शिकायत सुनने में नहीं आर्इ है : किंतु इन पिछले वर्षों में भारत में प्राचीन जातियों से संबंधित वही आंदोलन उठ खड़ा हुआ है जिसने यूरोप को आंदोलित कर रखा है, अब मुसलमानों के अधीन न होने के कारण हिंदुओं में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गर्इ है, अपने हाथ में शक्ति न ले सकने के बाद, वे कम से कम मुसलमानों की दासता के समय की अरुचिकर बातें दूर कर देना और स्वयं उर्दू को ही अवरुद्ध कर देना चाहते हैं, अथवा केवल उचित रूप में रखते हुए फारसी अक्षरों को जिसमें वह लिखी जाती है, जिन्हें वह मुसलमानों की छाप समझते हैं।" अपनी इस प्रतिक्रियावादी अजीब बात के पक्ष में वे जो तर्क प्रस्तुत करते हैं वे बिल्कुल स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। बिना इस बात की ओर ध्यान दिए हुए कि जब कि हिंदी जिसे वे राष्ट्रीयता की संकीर्ण भावना से प्रेरित हो पुनर्जीवित करना चाहते हैं, अब साहित्यिक दृष्टि से लगभग लिखी ही नहीं जाती, जो हर गाँव में, वस्तुतः प्रदेश के लोगों की तरह, बदल जाती है, जबकि उर्दू का सुंदर काव्यात्मक रचनाओं के द्वारा रूप स्थिर हो चुका है, वे कहते हैं कि देश की [अर्थात गाँवों की] भाषा हिंदी है न कि उर्दू। हिंदुओं को फारसी अक्षरों के संबंध में आपत्ति है और वे नागरी अक्षरों को पसंद करते हैं : किंतु बात उल्टी है... फारसी अक्षरों, साथ ही शिकस्ता के मुकाबले में भद्दी घसीट नागरी पढ़ना अधिक कठिन है। मुसलमानों ने साहसपूर्वक यह आक्रमण सहन किया है और, मेरा विचार है, अपने विरोधियों को सफलतापूर्वक सख्त उत्तर दिया है। स्पष्टतः यह जातिगत और धर्मगत विरोध है, यद्यपि दोनों में से कोर्इ यह बात स्वीकार करने के लिए राजी नहीं है। यह बहुदेववाद का एकेश्वरवाद के विरुद्ध, वेदों का बाइबिल जिसके अंतर्गत मुसलमान आ जाते हैं, के विरुद्ध संघर्ष है। मैं नहीं जानता कि अंगरेज सरकार हिंदुओं के सामने झुक जाएगी, अथवा जिन मुसलमानों के शासन की वह उत्तराधिकारिणी है उनकी बोली [dialect] को सुरक्षित रखेगी।" [26] तासी ने इसके पहले के पृष्ठों में लिखा - "...मुगल जाति का तैमूर हिंदुस्तान आया, दिल्ली का शासक बना और निश्चित रूप से 1505 में बाबर द्वारा स्थापित शक्तिशाली साम्राज्य की नींव डाली। तब हिंदी ने अपने को फारसी के भंडार से भरा, जो स्वयं उस समय तक अरब विजेताओं और उनके धर्म द्वारा प्रचलित अनेक अरबी शब्दों से मिश्रित हो चुकी थी। सेना का बाजार नगरों में स्थापित हुआ, और उसे तातारी नाम 'उर्दू मिला, जिसका ठीक-ठीक अर्थ है 'फौज' और 'शिविर'।" [27]
इस कदाचित लंबे उद्धरण का पुनर्पाठ हमें हिंदी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास और उसमें निबद्ध आलोचना में बन रहे कैननों की तरफ ले जाएगा। 1839 वाले संस्करण की भूमिका में 1870 में जोड़ा गया यह अंश साफ-साफ हिंदू-मुसलमान की कोटियों को और अधिक राजनैतिक रूप में बरतता है। तासी की भाषा-विवाद संबंधी यह बहस पीछे से चली आ रही औपनिवेशिक धारणा को पुष्ट करती है। हिंदवी-हिंदी-देहलवी-गूजरी-दकनी-रेख्ता-उर्दू-हिंदोस्तानी जैसे नामों के जाल में उलझा हमारी भाषा का इतिहास उपनिवेशन और पुनर्जागरण के राजनैतिक दौरों से गहरे संबद्ध है। तासी जिस 'उर्दू' की भाषा के तौर पर बात कर रहे हैं, सैनिक बाजारों और छावनियों से उसका उद्गम बता रहे हैं, आधुनिक शोधों के आर्इने में वह गलत साबित होती है। शम्सुर्रहमान फारुक़ी ने हेनरी यूल और ए.सी. बर्नील की किताब 'हाब्सन जाब्सन, ए ग्लासरी ऑफ कोलोकियल एंग्लो-इंडियन वर्डस, फ्रेजेज एंड किंडर्ड टर्म्स, इथिमोलाजिकल, हिस्टारिकल, जियोग्राफिकल एंड डिस्कर्सिव' में उर्दू के संबंध में व्यक्त तासी जैसी मान्यताओं का प्रत्याख्यान करते हुए लिखा - "पहली बात तो यह कि बाबर से पहले भी हिंदुस्तान में तुर्कों की कमी नहीं थी। इसलिए उर्दू शब्द के आगमन को बाबर के आगमन के साथ जोड़ना अनावश्यक है। दूसरी बात यह कि बाबर कभी दिल्ली में लंबे समय तक नहीं ठहरा। तीसरी बात यह कि हिंदी/हिंदवी/देहलवी नाम की भाषा दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बाबर के बहुत पहले से मौजूद थी। उत्तर भारत में मुगलों के आगमन के परिणामस्वरूप यहाँ कतर्इ कोर्इ नर्इ भाषा नहीं पैदा हुर्इ।" [28] दूसरे संस्करण की भूमिका में तासी ने अँग्रेजों द्वारा प्रचलित सभी भाषाओं को 'हिंदुस्तानी [हिंदुर्इ और हिंदी, उर्दू और दक्खिनी] नाम दिए जाने और लोगों में इस नाम के अस्वीकार की बात की है। उनके अनुसार भारत के लोग नागरी में लिखित हिंदू बोली को हिंदी और फारसी में लिखित मुसलमानी बोली को उर्दू नाम से पुकारना पसंद करते हैं। तब जबकि हम यह जानते हैं कि "ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला को आमतौर पर फारसी की जगह हिंदी कहलाते-कहलाते 1790-1795 का ज़माना अवश्य आ गया होगा" [29] और "हमारी भाषा [अर्थात वह भाषा जिसे हम आज उर्दू कहते हैं] का नाम शाहआलम के लिए हिंदी था" [30], तब इस आलोक में औपनिवेशिक भाषा नीति और अधिक मुखर होती है। फारुक़ी ने लिखा - "अँग्रेजों के लेखन और नीति में 'हिंदुस्तानी' को 'हिंदी/हिंदवी' पर भाषा की हैसियत से प्राथमिकता देने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने इस भाषा को सिर्फ मुसलमानों से संबद्ध करार दिया था। वे 'हिंदी' भाषा को 'हिंदुओं' की भाषा और एक अलग तरह की भाषा करार देने का आग्रह कर रहे थे।" [31] इस भाषा नीति ने हिंदू-हिंदी और उर्दू-मुसलमान की वह गिरह पैदा की जिससे समूचा हिंदी नवजागरण ग्रस्त रहा।
महत्वपूर्ण यह है कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद लिखी गर्इ दूसरे संस्करण की भूमिका में तासी राष्ट्रवादी उभार को देखते हैं, लेकिन उसकी नजर एक विशिष्ट कोण से पूरी परिघटना का औपनिवेशिक अनुवाद करती है। राष्ट्रवादी उभार को वह 'संकीर्ण' कहते हुए वह भाषा के मामले में राष्ट्रवाद के हिंदू स्वर को रेखांकित करता है और उर्दू और हिंदी भाषाओं के संबंध को युद्ध के रूपक के सहारे हिंदू और मुसलमान समुदायों के ऊपर लाद देता है। यह रूपक आगे की ओर बढ़ता हुआ बहुदेववाद और एकेश्वरवाद के संघर्ष के रूप में प्रक्षेपित किया जाता है। फिर इस तर्क प्रणाली में अगला कदम बाइबिल के अंदर मुसलमानों को समो लेने की, उन्हें धर्म के आधार पर हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की औपनिवेशिक चाल थी। 1857, जिसे नए राष्ट्र की प्रसव पीड़ा कहा गया, जब हिंदू और मुसलमान समुदाय अपनी एक नर्इ राष्ट्रीय अस्मिता तलाश कर रहे थे, जब अजीमुल्ला खान कौमी तराना लिख रहे थे और यह सब साझा दुश्मन अँग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ था तो उसके बरक्स शासक अँग्रेजों की नीति इन समुदायों को परस्पर उलझा देने और किसी एक के सिर पर एक समय में हाथ रख देने की थी। ऐसे में साम्राज्यवाद-विरोध की राष्ट्रीय सांस्कृतिक आकांक्षा को सांप्रदायिक रूपों में संक्षिप्त कर देने की नीति तासी के एकेश्वरवाद-बहुदेववाद के मुद्दे में देखी जा सकती है। साम्राज्यवाद के खिलाफ, उसको 'पर' मानकर निर्मित हो रही राष्ट्रीयता को घटाकर हिंदू और मुसलमान समुदायों को एक दूसरे का 'पर' बना देने की औपनिवेशिक नीति ने हमारे नवजागरण की प्रारंभिक गतिकी को गहरे प्रभावित किया।
यहीं आरंभिक पश्चिमी आलोचकों-साहित्येतिहासकारों के भक्तिकाल संबंधी रुख की भी परख उनकी सुस्पष्ट वैचारिकी और स्थापित किए जा रहे कैननों के संदर्भ में की जानी चाहिए। कृष्ण और राम काव्य ही नहीं वरन भक्तिकाल के अन्य कवियों पर इन आलोचकों का रुख इनके कैनन निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए उपयुक्त है। सामाजिक क्षेत्र में लागू की जा रही औपनिवेशिक वैचारिकी ने संस्कृति के क्षेत्र में भाषा के सहारे हस्तक्षेप किया और फिर धर्म के सहारे कैनन गढ़े गए। हिंदुस्तानी के बारे में लिखते हुए तासी ने यूरोप और हिंदुस्तान के धार्मिक सुधारों की तुलना की - "...वह भारतवर्ष के धार्मिक सुधारों की भाषा है। जिस प्रकार यूरोप के र्इसार्इ सुधारकों ने अपने मतों और धार्मिक उपदेशों के समर्थन के लिए जीवित भाषाएँ ग्रहण कीं, उसी प्रकार, भारत में हिंदू और मुसलमान संप्रदायों के गुरुओं ने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए सामान्यतः हिंदुस्तानी का प्रयोग किया है।" [32] यहाँ तासी जिस आधार पर दोनों संप्रदाय के गुरुओं की प्रशंसा कर रहे हैं, वह है जनसाधारण की बोली में साहित्य रचना। परंतु र्इसार्इ संतों से तुलना करके वे एक ऐसा बिंदु बहस के लिए नियोजित करते हैं जिसे ग्रियर्सन आदि आगे बढ़ाते हैं।
ग्रियर्सन को तुलसी क्यों प्रिय हैं, उनके कैनन में तुलसी सर्वोपरि क्यों हैं, वह इन उद्धरणों से साफ हो जाएगा। तुलसीकृत रामायण/रामचरित मानस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा - "...इसने इस क्षेत्र को शैव धर्म की तांत्रिक अश्लीलताओं से बचा लिया है।" [33] बंगाल के ऊपर शैवों के बुरे प्रभाव की रक्षा का श्रेय रामानंद को देते हुए ग्रियर्सन आगे लिखते हैं - "अनैतिकता के उस युग में जब हिंदू समाज के बंधन शिथिल हो रहे थे और मुगल साम्राज्य संगठित हो रहा था, इस ग्रंथ की सबसे विशिष्ट बात इसकी नैतिकता है... उस घोर विलासिता के युग में, रामायण से बढ़कर मर्यादापूर्ण और पवित्र और कोर्इ दूसरा ग्रंथ नहीं है।" [34] इसी ग्रंथ में अन्यत्र वे लिखते हैं - "र्इश्वर के रूप में अवध के राजकुमार राम की पूजा, पत्नीत्व की पूर्ण प्रतिमा सीता की प्रेममयी पति-भक्ति और मातृत्व की मूर्ति कौशल्या स्वाभाविक ढंग से क्रिश्चियन चर्च के उपासना पद्धति के सर्वोत्तम रूप में विकसित हो गए हैं।" [35] तो तुलसी की भक्ति का यह एक ऐसा पाठ है जो उन्हें उनकी कविता के मूल शक्तिबिंदु से अलग खड़ा कर देता है।
ग्रियर्सन की यह व्याख्या तुलसी को उनके समकालीन समाज यानी मुसलमान शासकों के समय की काल्पनिक अश्लीलता, विलासिता और अनैतिकता तथा सबसे बढ़कर कुराज के खिलाफ खड़ा करती है, निश्चय ही तुलना का बिंदु राजनीति के क्षेत्र में 'महान' अँग्रेजी शासन और संस्कृति के क्षेत्र में र्इसाइयत है। तब तुलसी का र्इसाइयत से साम्य बिठाए बगैर इस उद्देश्य की पूर्ति न हो पाती। ग्रियर्सन ने हिंदुस्तानी जनता के दुख-सुख को व्यक्त करने वाली तुलसी की शक्ति को पहचाना जरूर पर उसकी व्याख्या में फेर-बदल कर दिए। अवध और समूची हिंदी पट्टी के किसानों की जनभावनाओं के प्रतिनिधि कवि के रूप में तुलसी की व्याख्या ग्रियर्सन इसलिए नहीं कर सके क्योंकि उनका आलोचनात्मक विवेक, उपनिवेशवाद से निर्धारित था। धर्म, भक्तिकाल की कविता में मुहावरे की तरह प्रयुक्त हुआ है। इस धर्म तत्व को राजनैतिक आशयों से संयुक्त कर औपनिवेशिकों ने एक तीर से कर्इ शिकार किए। ध्यान देने की बात है कि आगे के आलोचनात्मक कैननों में भी तुलसी का स्थान न सिर्फ बना रहा बल्कि धर्म की आधारभूत स्थापना भी उसके साथ ही गतिशील रही। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी को कैनन में शामिल करने के क्रम में अन्य बातों के अतिरिक्त धर्म तत्व का भी पर्याप्त प्रयोग किया है। यहाँ भी धर्म उन्हीं आधुनिक अर्थों में राष्ट्र की तरह ही फिर से खोजा जाता है, उसकी सनातनता के गीत गाए जाते हैं और दूसरे धर्मों को 'अन्य' मानकर उनके विरुद्ध अपनी अस्मिता को खड़ा किया जाता है।
मात्र तुलसीदास नहीं, वरन भक्तिकाल पर समूचे पश्चिम लेखन पर इस 'धर्म' आधारित श्रेष्ठता बोध की राजनीति साफ झलकती है। भक्तिकाल यदि मनुष्यमात्र की बराबरी की बात कर रहा था तो उसका आधार 'नर की मनसबदारी' से मुक्ति था। मुक्तिबोध के साक्ष्य पर कहें तो भक्तिकाल सामाजिक संरचनाओं को तोड़-फोड़ कर नर्इ सामाजिक शक्तियों की राजनैतिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति था। इस पूरे आंदोलन के कवियों और चरित्र को अपनी सत्ता की वर्चस्वशाली निगाहों से देखने के कारण प्रारंभिक पाश्चात्य साहित्यालोचक एक नए किस्म का कैनन गढ़ रहे थे। रामानंद तथा तुलसी की प्रशंसा और सूर और कृष्ण-काव्य की आलोचना करते हुए ग्रियर्सन के शब्द इस प्रकार हैं - "यहाँ हम पहली बार विचारों की उस महान उदारता [36] का स्पर्श करते हैं... यह एक ऐसा सिद्धांत है... तुम अपने प्रभु, अपने देवता को संपूर्ण हृदय से, संपूर्ण आत्मा से, संपूर्ण शक्ति और संपूर्ण मन से प्यार करो तथा अपने प्रतिवासी को उतना प्यार करो जितना स्वयं अपने को करते हो। ...अपने सर्वश्रष्ठ रूप में कृष्ण काव्य रामानंद के उपदेशों के उदात्त तत्वों से रहित है... प्रायः स्वार्थमय है... यह र्इसार्इ धर्म के प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आदर्श की शिक्षा देता है: परंतु दूसरे आदेश को पूर्णतः भुला देता है।" [36] इस वक्तव्य के बाद ग्रियर्सन पाद टिप्पणी में तुलसीदास के संदर्भ में इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं - "हमारे चर्च के मंत्रों में से अनेक ऐसे हैं जो इस महाकवि [तुलसी] के द्वारा रचित पद्यांशों के अक्षरशः अनुवाद हो सकते हैं।" [38] अब कबीर के बारे में फ्रैंक र्इ.के. के कथन पर ध्यान दें। र्इ.के. ग्रियर्सन के काफी बाद के साहित्येतिहासकार हैं। उनका साहित्येतिहास 1920 में छपा। उन्होंने अपनी किताब 'कबीर एंड हिज फालोवर्स' में लिखा - "यद्यपि यह लगभग तय है कि कबीर कभी र्इसाइयत के संपर्क में नहीं आए, और संभवतः र्इसार्इ शिक्षा के विषय में बहुत कम या लगभग नहीं के बराबर जानते थे। फिर भी जिस भक्ति आंदोलन के वे अनुषंगी थे, उस पर निश्चय ही र्इसार्इ विचारों का प्रभाव था।" [39] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की भाषा में कहें तो यहाँ सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर भक्ति आंदोलन और ईसाइयत में बादरायण संबंध स्थापित किया गया है। इस बादरायणपने का कारण खोजने कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। 'धर्म विजय का सांस्कृतिक अस्त्र राजनीति के मातहत होकर साम्राज्यी हितों का पोषण करने के लिए सन्नद्ध था, यह देखा जा सकता है।
1910 तक 'हिंदी नवरत्न' के पहले संस्करण में कबीर, मिश्रबंधुओं के कैनन में शामिल न थे। 'हिंदी नवरत्न' के दूसरे संस्करण में नवरत्नों में उनकी गणना हुर्इ और तीसरे संस्करण में सूची में तीसरे स्थान पर पदोन्नति। ऐसे में र्इ.के. द्वारा उन पर किया गया काम उन्हें अलग धार्मिक आधारों पर कैनन में शामिल करना ही था। र्इ.के. ने अपने इतिहास के 'हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थिति और संभावनाएँ' शीर्षक अध्याय में अपनी 'धर्म निरपेक्ष' दृष्टि का परिचय इन शब्दों में दिया है - "भारतीय लोग इस बात से काफी अनभिज्ञ हैं कि राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक उत्थान और धार्मिक सुधार के कितने नए आंदोलनों को वस्तुतः र्इसार्इ आदर्शों से प्रेरणा मिली है। भारत ने अपने और अपने बच्चों के लिए महान गौरवशाली भविष्य का सपना देखा है जो उसकी अतीत की उपलब्धियों से भी महानतर हैं, हालाँकि वे उपलब्धियाँ भी अप्रतिम थीं। न्याय निष्ठा और कर्तव्य तथा मातृभाव और सेवा के नए आदर्श उनके सामने प्रस्तुत हुए हैं। बहुत सीमा तक इनके लिए क्राइस्ट के जीवन और उनकी शिक्षाओं से प्रेरणा मिली है। भारतीय जीवन में जो कुछ उदात्त और उत्कृष्ट है अनेक दृष्टियों से क्रार्इस्ट में उन सबकी परिपूर्णता है।" [40] पुस्तक के अनुवादक सदानंद शाही ने इस 'धर्म निरपेक्षता' और सत्ता विमर्श पर जो प्रश्नचिन्ह लगाया है वह अपने बहुलांश में एकदम सटीक है - "कहना न होगा कि अधिकांश हिंदी सेवियों का मूल उद्देश्य र्इसार्इ धर्म, अँग्रेजी भाषा, और अँग्रेज जाति की श्रेष्ठता बताकर भारत की औपनिवेशिक गुलामी को तार्किक आधार ही देना था।" [41] हालाँकि धर्म-जाति और भाषा के इस परिचित त्रिकोण से 'हिंदू-हिंदी-हिंदुस्तानी' का याद आना स्वाभाविक है। हिंदी-सेवी ब्रिटिशों की पहचान इस 'राष्ट्रवादी' नारे से मिलते-जुलते वैचारिक दायरे में करने की जगह उनको 'औपनिवेशिक' की तरह ही देखना अधिक संगत है, क्योंकि 'श्रेष्ठता' से अधिक उनका आग्रह अपने राजनैतिक लाभों पर था। इसलिए हम देखते हैं कि भाषा-विवाद गहराने के सफल प्रयासों के साथ-साथ अँग्रेज कभी हिंदी, तो कभी उर्दू को श्रेष्ठ भाषा के रूप में प्रस्तावित करते हैं।
सबाल्टर्न इतिहासकारों ने 'राष्ट्र' के संदर्भ में एक सैद्धांतिक विसंगति को चित्रित करते हुए लिखा - "जिस राष्ट्र के हम नागरिक हैं, वह 'भारत अपने भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक और धारणात्मक प्रतिरूप में हमेशा से ही मौजूद नहीं था। राष्ट्र निर्माण एक ऐतिहासिक रचना है। दुनिया में कोर्इ भी राष्ट्र चिरकाल से ही बना-बनाया नहीं पाया गया है - किसी भी राष्ट्र की उत्पत्ति इतिहास के अहाते के बाहर नहीं हुर्इ है, हालाँकि हर राष्ट्र अपने को एक परिपक्व, अंतर्यामी, वृद्धज्ञानी के रूप में प्रस्तुत करने का दम भरता है। और देशों की तरह भारत के राष्ट्र निर्माण कार्य में भी विभिन्न प्रवृत्तियाँ, विचारधाराएँ, कामनाएँ और प्रयास आपस में टकराए, कुछ तात्कालिक तौर पर विजयी हुए और कुछ छोटे या लंबे अरसे के लिए परास्त हो गए। लेकिन हमारी राष्ट्र निर्माण किया पर इस द्वंद्व की छाप रही और आज भी है - जैसे कि प्रत्येक राष्ट्र के निर्माण में रही है।" [42] भाषा के मामले में भी यह नीति अधिक मुखरित हुर्इ क्योंकि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर नौकरियों, पद-प्रतिष्ठा और समुदायों की संपन्नता और प्रभाव का माध्यम भी थी। अँग्रेजों द्वारा प्रचारित हिंदी-उर्दू विवाद को उन्होंने ही भैतिक आधार उपलब्ध कराया। हिंदी को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों से संबद्ध कर देने की सांस्कृतिक चाल प्रारंभिक नवजागरण के अग्रदूतों को हिंदी को जातीय अस्मिता के प्रतीक बनाने की ओर ले गर्इ, जहाँ 'उर्दू बेगम का स्यापा' के साथ-साथ हिंदी के उस स्वर्णिम अतीत की खोज शुरू हुर्इ, जो एक भाषा के रूप में तब तक 'हिंदी' का था ही नहीं। यह खोज राष्ट्र की उस खोज की आनुषंगिक बनकर उभरी जिसे अतीत में खोजा जा रहा था।
वसुधा डालमिया ने इस खोज के राजनैतिक निहितार्थ यूँ रेखांकित किए हैं - "बीती सदी की 1861-1870 वाली दहार्इ आते-आते 'हिंदी के जातीय समर्थक' जो "हिंदी के आरंभ के बारे में मिथ और वंशावली सृजन करने में लीन थे", इस बात को अत्यंत निरर्थक बताते कि उनकी भाषा कोर्इ बनावटी चीज है। उन्हें इस पर विश्वास था कि "हिंदी उत्तर भारत के क्षेत्रों में सभी घरों में बोली जाती थी, और यह स्थिति मुसलमानों के हमले से पहले से थी... जैसा कि अक्सर हुआ है, राष्ट्रवादियों और साम्राज्यवादियों में कम से कम इस बात पर सहमति थी, अर्थात हिंदुओं की अपनी एक भाषा है, और यह भाषा उन्हें आज ही के मुसलमानों से नहीं, बल्कि भूतकालीन मुसलमानों से अलग करती है।" [43] प्रसंगतः इसी मनोरचना की झलक न सिर्फ भारतेंदु और उनके समकालीनों में बल्कि आगे चलकर आचार्य शुक्ल तक के आलोचनात्मक कैननों में दिखार्इ देती है।
संस्कृति के राजनैतिक उपयोग की औपनिवेशकों की यह दक्ष और पक्षपातपूर्ण कोशिश 1857 की हिंदू-मुस्लिम साम्राज्यवाद-विरोधी, सांप्रदायिकता-विरोधी एकता की राजनीति को संस्कृति के क्षेत्र में हाशिए पर धकेलने का प्रयास थी। इतिहास गवाह है कि काफी हद तक यह प्रयत्न सफल हुआ और भारतीय राष्ट्रवादी चिंतन में इसकी झलक दूर तक देखी गर्इ। बाद में रामविलास शर्मा ने संस्कृति के क्षेत्र में इतिहास के इस अध्याय का पुनर्पाठ करके इस बहस को नर्इ दिशा दी। बीसवीं सदी में किए गए इस प्रयास का असर उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर की हिंदी आलोचना में भाषा और समुदायों के पारस्परिक संबंधों के विमर्श पर कैसे पड़ा, आगे के अध्यायों में हम देखेंगे।
'आधुनिक धार्मिकता' के अतिरिक्त विक्टोरियार्इ नैतिकता भी तासी के उन प्रतिमानों में से एक है, जिससे वे अपना इतिवृत्त-संग्रह चयन करते हैं। पहले अध्याय में कैनन की परिभाषा करते हुए उद्धृत नामवर सिंह की टिप्पणी कि कैनन 'हायरार्की ऑफ वैल्यूज' रचते हैं, के संदर्भ से कह सकते हैं कि तासी और समानधर्मा प्रारंभिक पाश्चात्य विद्वानों ने हिंदी/हिंदुर्इ पर लिखते हुए विक्टोरियार्इ नैतिकता के मूल्य को वर्चस्वशाली बनाया। तासी ने अपने साहित्येतिहास में रचनाओं का चयन करते हुए रचनाओं को कैनन में शामिल करने का एक प्रतिमान श्लीलता-अश्लीलता भी रखा है। संस्कृत और उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य-दोषों में इतने कड़े प्रतिमान नहीं हैं। जहाँ तक पूर्ववर्ती रीतिकाल का प्रश्न है, वहाँ यह बहस का विषय ही नहीं है। ऐंद्रियता बनाम सामंती लंपट मनोभाव की बहस को अगर हम अलग रखें तो कैनन के संदर्भ में यहाँ 'अश्लीलता' की 'आधुनिक' परिभाषा देख सकते हैं। रीतिकाल का 'प्रगतिशील ऐंद्रियता' के नजरिए से पाठ करने की कोशिश कितनी औचित्यपूर्ण है अथवा कितनी कैनन बनाने की राजनीति से प्रभावित है, या फिर इस प्रयास का महिला पाठ क्या संभव है, यह अगले अध्यायों का विषय है किंतु संदर्भतः यहाँ कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती हिंदी/हिंदवी कविता पर नैतिकता के मूल्य पहली बार कठोरता से लागू किए गए। तासी ने अपने साहित्येतिहास के प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द [1847] में लिखा - "...किंतु जो अंश मेरे सामने थे, या जिन्हें मैंने तैयार कर लिया था, उनका बहुत बड़ा भाग मुझे छोड़ देना पड़ा क्योंकि वे या तो हमारे आचार-विचारों के अत्यधिक विरुद्ध थे, या क्योंकि उनमें अनैतिक बातों का उल्लेख है या वे अश्लीलता से दूषित हैं, या अंत में क्योंकि वे ऐसे अलंकारों से भरे हुए हैं जिन्हें यूरोपीय पाठकों के लिए समझना असंभव है।" [44]
प्रथमतः तो यूरोपीय पाठक के लिए पढ़े जाने वाले पाठ के रूप में तासी, भारतीय साहित्य के कैनन बनाते हैं, फिर तो जो उनकी समझ में आ सके, ऐसे प्रतिमानों पर कसा हुआ हिंदी साहित्य चाहिए ही। इस कारण से काव्य-रूढ़ि और प्राचीन भारतीय काव्य के वे हिस्से जो पारंपरिक ढाँचों को परिवर्धित और पुनर्नवीन करते हैं, वे कैनन से बाहर हो जाते हैं। ऐसे में सबसे अधिक हानि उन काव्य विधाओं की होगी, जो एक ही जमीन पर, एक ही भाव पर परंपरा से ग्रहण करते हुए उसे आगे बढ़ाते हैं। इस आधार पर उस्ताद शायरों और बड़े कवियों की रचनाओं के भीतर भी काट-छाँट होने लगती है। जायसी और तुलसी, सूर, घनानंद हों या मीर, ग़ालिब और सौदा या जफर, एक विस्तृत काव्य परंपरा का बोध उनके काव्य में विन्यस्त है। काव्य के उपमानों और बिंबों में, काव्य रूढ़ियों में, और समूचे विन्यास में। तासी की तर्क प्रणाली से देखने पर इन बड़े कवियों की रचनाओं के ढेरों महत्वपूर्ण हिस्से बाहर हो जाएँगे। दूसरे तासी उसमें धर्म का एक बिंदु भी खोज निकालते हैं - मुसलमान रचयिताओं में अश्लीलता। तासी ने आगे चिन्हित किया - "एक बात ध्यान देने योग्य है कि फारस और भारत के अत्यंत प्रसिद्ध मुसलमान रचयिताओं, जिन्हें संत व्यक्ति समझा जाता है, जैसे, हाफिज, सादी, जुर्रत, कमाल आदि लगभग सभी ने अश्लील कविताएँ लिखी हैं।" [45] ठीक यही बात हिंदवी के अन्य कवियों को भी कैननकृत करती है। अपने शोधग्रंथ में अँग्रेज समीक्षकों की प्रशंसा करते हुए एफ.एस. ग्राउस को आधार बनाते हुए रामअधार शर्मा ने लिखा - "...ये लेखक तुलसी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं और उनके आगे सूर को अधिक महत्व नहीं देते। सूर की कल्पनाओं में इन्हें ऐंद्रियता का आभास मिलता है और कृष्ण काव्य की उद्दाम भावुकता को वे परवर्ती साहित्यिक पतन का कारण मानते हैं।" [46] स्वयं ग्रियर्सन ने अपने साहित्येतिहास में सूरदास की विभिन्न शैलियों में लिखने के लिए प्रशंसा करते हुए भी उन्हें कैनन में वह स्थान न दिया जो तुलसी को। टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा - "भारतीय लोग इनको कीर्ति के सर्वाच्च गवाक्ष में स्थान देते हैं पर मेरा विश्वास है कि यूरोपीय पाठक आगरा के अंधे कवि की अत्यधिक माधुरी की अपेक्षा तुलसीदास के उदार चरित्रों को अधिक पसंद करेगा।" [47] और अन्यत्र यह भी लिखा कि - "अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भी कृष्ण काव्य रामानंद के उपदेशों के उदात्त तत्वों से रहित है।" [48] तासी ने तो मीर के द्वारा सराहे जाने के बावजूद सौदा के व्यंग्यों को अपने साहित्येतिहास के कैनन से बाहर धकेल दिया। अभियोग वही सदाचार-विरुद्धता का लगाया गया। [49]
भाषा के संदर्भ में हिंदवी/हिंदुस्तानी की बहसों को परखने के बाद यह निष्कर्ष निकालना बहुत असंगत नहीं लगता कि अँग्रेज और प्रारंभिक अन्य पश्चिमी विद्वानों ने भाषा के मामले में एक दुर्भेद्य दीवार गढ़ी, जिस पर औपनिवेशिक सांस्कृतिक अभियान का घर खड़ा किया गया। तासी के ग्रंथ में हिंदी-हिंदुस्तानी [उर्दू] दोनों का सम्मिलित इतिहास है, जबकि ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ में 'हिंदुस्तानी/उर्दू' के हिस्से को अलग कर दिया। तासी के संदर्भ में अध्याय के प्रारंभ में की गर्इ बहसों से यह निशिचित है कि पहले संस्करण [1839-47] से दूसरे संस्करण [1870-71] तक आते-आते उनके स्वर में परिवर्तन दिखने लगता है। ग्रियर्सन ने हिंदी को उर्दू से अलगाते हुए तर्क दिया था कि यह हिंदुस्तान के शहरों में मुसलमानों तथा फारसी संस्कृति से प्रभावित हिंदुओं द्वारा बोली जाती है। इस आधार पर उन्होंने हिंदी-उर्दू को अलग-अलग किया। सदानंद शाही ने लिखा - "मौलाना करीमुददीन के 'तजकिरा ए शुअरा ए हिंदुस्तान' में हिंदी और उर्दू के साहित्यकार एक साथ उपस्थित हैं। उर्दू और हिंदी को अलगाने का काम जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने किया। वह उर्दू को देशभाषा नहीं मानता था।" [50] इस औपनिवेशिक हस्तक्षेप के बाद हम अपनी मिलवाँ भाषा खो बैठे। बाद में हिंदी के नाम पर चले राष्ट्रीय आंदोलन में इस बात की वैचारिक आधारभूमि निर्मित हुर्इ।
आचार्य शुक्ल ने भाषा की इस गुत्थी को अपने तर्इं समझा और अभिव्यक्त किया। उनको इस बात का आभास है कि पाश्चात्य विद्वान हिंदी-उर्दू विवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। अपनी राष्ट्रवादी तर्कणा के सहारे वे इस औपनिवेशिक गुत्थी को तो हल कर लेते हैं परंतु जिन आधारों को औपनिवेशकों ने संस्कृति के क्षेत्र में खड़ा किया था, उन्हीं पर खड़े होकर। वे अँग्रेजों पर मुसलमानों के पक्ष में पक्षपात करने कर आरोप लगाते हैं। भाषा के माध्यम से हिंदुस्तान में सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने की अँग्रेजों की बड़ी राजनीति को वे अपने चिंतन का कंद्रीय बिंदु नहीं बना पाते। इस मामले में वे अँग्रेजों के साथ खड़े होते हैं कि हिंदी/हिंदू और मुसलमान/उर्दू दो अलग-अलग भाषाएँ और कौमें हैं तथा हिंदी पुरानी और पारंपरिक भाषा है। अपने साहित्येतिहास के आधुनिक काल के पहले प्रकरण में गद्य का विकास दर्शाते हुए उन्होंने लिखा - "जैसा कि अभी हम कह आए हैं राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के समय तक हिंदी-उर्दू का झगड़ा चलता रहा। गार्सा द तासी ने भी फ्रांस में बैठे-बैइे इस झगड़े में योग दिया। ...हिंदी-उर्दू का झगड़ा उठने पर आपने [तासी ने] मजहबी रिश्ते के खयाल से उर्दू का पक्ष ग्रहण किया..." [51] शुक्ल जी ने तासी के 'मजहबी' मंतव्यों को तो चिन्हित किया लेकिन आगे बढ़कर वे उसकी राजनैतिक जड़ें तलाशने में सफल नहीं हुए अन्यथा उर्दू के प्रति ऐसी दृष्टि न रखते कि फारसी-अरबी मिली भाषा के अलोकप्रिय होने के लिए उन्हें र्इसार्इ अनुवादकों की भाषा को प्रमाण के रूप में उद्धृत करना पड़ता - "...इन अनुवादकों [र्इसार्इ धर्मप्रचारकों] ने सदासुख और लल्लूलाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिल्कुल दूर रखा, इससे यही सूचित होता है कि फारसी-अरबी मिली भाषा से साधारण जनता का लगाव नहीं था जिसके बीच मत का प्रचार करना था। ...जिस संस्कृत मिश्रित भाषा का विरोध करना कुछ लोग एक फैशन समझते हैं उससे साधारण जनसमुदाय उर्दू की अपेक्षा अधिक कहीं अधिक परिचित रहा है और है।" [52]
जिस लल्लूलाल की भाषा का शुक्ल जी बखान कर रहे हैं उसके बारे में फारुक़ी ने जोल ब्लाक और डॉ. ताराचंद को आधार बनाते हुए लिखा - "...ब्लाक इस बात को भी स्वीकार करता है कि लल्लूलालजी ने गिलक्राइस्ट के प्रभाव के अंतर्गत अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्रेमसागर' लिख कर सब कुछ 'बदल डाला'। ब्लाक के कथनानुसार, "इसके गद्य वाले हिस्से कुल मिलाकर उर्दू हैं, लेकिन इसमें फारसी शब्दों के स्थान पर हिंदी आर्यार्इ शब्द रख दिए गए हैं।"" [53] संस्कृतनिष्ठ हिंदी और उर्दू के संदर्भ में लोकप्रियता और अलोकप्रियता के शुक्ल जी के तर्क को 1802 की बेली की थिसिस के सामने रखकर देखा जाना चाहिए। फोर्ट विलियम कॉलेज में 6 फरवरी, 1802 को पढ़ी गर्इ अपनी थिसिस में बेली कहता है - "हिंदूस्तान में कार्रवार्इ के लीए हिंदी ज़बान और ज़बानों से ज़ीआदः दरकार है हिंदुस्तानी ज़बान कि जिसका जि़क्र मेरे दावे में है उसको हिंदी-उर्दू और रेख्तः भी कहते हैं और यह मुरक्कव अरबी और फारसी ओ संस्कृत या भाषा से है और यिह पिछली अगले जमाने में तमाम हिंद में राऐज़ थी।" [54] जो हो, आचार्य शुक्ल और उनके पहले के आलोचकों/चिंतकों के इस द्वंद्व पर आगे चर्चा होगी पर यहाँ यह कह देना संगत होगा कि औपनिवेशिक दृष्टि के कारण - उसके विरोध में और उसके प्रभाव में, जो 'आधुनिक मानस' हमें मिला या हमने अर्जित किया, वह गहरी समस्याएँ लिए हुए था। ठीक इसी कारण से अँग्रेजों के प्रत्यक्षतः विरोधी होते हुए भी सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनके बनाए गए कैननों ने हमारे अपने राष्ट्रवादी आलोचनात्मक कैननों पर एक दूरगामी असर डाला।
संदर्भ :
1. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ - 25
2. In Theory : Classes, Nations, Literatures, Aijaz Ahamad, OUP, 1994, Page : 225
3. वही, पृष्ठ - 224
4. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, रामविलास शर्मा, भूमिका, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ - 11
5. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, परिशिष्ट 'इ', वेलेजली के मिनिट्स के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण, हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ : 25
6. वही, पृष्ठ - 163
7. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वाँ संस्करण, 1997, पृष्ठ - 227
8. वही, पृष्ठ - 228
9. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ - 162
10. वही, पृष्ठ - 24
11. Theory: Classes, Nations, Literatures, Aijaz Ahamad, OUP, 1994, Page - 114
12. The Oriental Linguist, John Gilchrist, An Easy and Familiar Introduction to the Hindoostanee, or Grand Popular language of Hindoostan, उर्दू का आरंभिक युग, इतिहास, विश्वास एवं राजनीतिः आरंभ की कुछ मिथ्याएं, शम्सुर्रहमान फारुक़ी के पृष्ठ - 20 से उद्धृत
13. उर्दू का आरंभिक युग, इतिहास, विश्वास एवं राजनीतिः आरंभ की कुछ मिथ्याएं, शम्सुर्रहमान फारुक़ी, राजकमल प्रकाशन, 2007, पृष्ठ - 20
14. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ - 48
15. उर्दू का आरंभिक युग, इतिहास, विश्वास एवं राजनीति: आरंभ की कुछ मिथ्याएं, शम्सुर्रहमान फारुक़ी, राजकमल प्रकाशन, 2007, पृष्ठ - 12
16. क़ाइम चाँदपुरी: कुल्लियात, संपादक: इक्तिदा हुसैन, मजलिस तरक़्क़ी अदब, 1965, पृष्ठ - 215
17. देखें - हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वें संस्करण में आधुनिक काल- गद्य खंड, प्रकरण एक में 'गद्य का विकासः खड़ी बोली का गद्य' शीर्षक अंश, पृष्ठ - 224-238
18. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ - 14
19. हिंदी साहित्य का इतिहास, फ्रेंक ई. के, संपादन एवं अनुवाद - सदानंद शाही, लोकायत प्रकाशन, 1988, पृष्ठ - 6
20. एडवर्ड सईद और उनके 'ओरिएंटलिज्म' पर मार्क्सवादी दृष्टि से की गई बहस के लिए देखें - एजाज अहमद की किताब 'इन थ्योरी' का 'ओरिएंटलिज्म एंड आफ्टर: एंबिवेलेंस एंड मेट्रोपॅलिटन लोकेशन इन द वर्क आफ एडवर्ड सईद' नामक अध्याय। यहाँ एजाज अहमद ने 'ओरिएंटलिज्म' की सईद की धरणा और उसकी परिभाषाओं में निहित अंतर्विरोधों को रेखांकित करते हुए 'पश्चिम' ओर 'पूर्व' की आत्यंतिक कोटियों की बजाय पूँजी के राजनैतिक गतिविज्ञान के सहारे देखने की बात की है। पृष्ठ - 159-218
21. कहीं-कहीं इस किताब का नाम 'द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ नादर्न हिंदुस्तान' मिलता है। आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में इसी नाम का प्रयोग किया है। जबकि बाद के लगभग सभी साहित्येतिहासकारों ने 'नादर्न' नहीं लिखा है। अपने अनुवाद में भी डॉ. वार्ष्णेय ने 'नादर्न' नहीं लिखा है।
22. हिंदुई साहित्य का इतिहास, गार्सां द तासी, अनुवादक: लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदुस्तानी एकेडमी, 1953, पृष्ठ - 1
23. वही, पृष्ठ - 1
24. हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास, जॉर्ज अब्राहम ग्रिर्यसन, अनुवाद: किशोरीलाल गुप्त, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, 1961, पृष्ठ - 126
25. हिंदुई साहित्य का इतिहास: गार्सां द तासी, अनुवादक: लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदुस्तानी एकेडमी, 1953, प्रथम संस्करण [1839] की पहली जिल्द की भूमिका, पृष्ठ - 1-2
26. वही, द्वितीय संस्करण [1870] की पहली जिल्द की भूमिका, पृष्ठ - 57-58
27. वही, पृष्ठ - 5
28. उर्दू का आरंभिक युग, इतिहास, विश्वास एवं राजनीति: आरंभ की कुछ मिथ्याएँ, शम्सुर्रहमान फारुक़ी, राजकमल प्रकाशन, 2007, पृष्ठ - 14-15
29. वही, पृष्ठ - 16
30. वही, पृष्ठ - 17
31. वही, पृष्ठ - 17
32. हिंदुई साहित्य का इतिहास: गार्सां द तासी, अनुवादक: लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदुस्तानी एकेडमी, 1953, द्वितीय संस्करण [1870] की पहली जिल्द की भूमिका, पृष्ठ - 60-61
33. हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास, जॉर्ज अब्राहम ग्रिर्यसन, अनुवादः किशोरीलाल गुप्त, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, 1961, पृष्ठ - 136
34. वही, पृष्ठ - 137
35. वही, पृष्ठ - 62
36. अपनी मूल पुस्तक में ग्रियर्सन ने 'कैथोलिसिटी' शब्द लिखा है, - [Here we first touch upon marvelous catholicity of sentiment of which the key-note was struck by Raman and.] इसमें आए 'कैथोलिसिटी' का अनुवाद किशोरीलाल गुप्त ने 'महान उदारता' किया है। इस शब्द का एक अर्थ तो यह है ही, पर यदि सांस्कृतिक अनुवाद किया जाए तो ग्रिर्यसन के इस प्रयोग में एक विशिष्ट धर्मिक श्रेष्ठता बोध है। ठीक इसी तरह का एक और उदाहरण दिया जा सकता है। तुलसीदास के प्रसंग में उनकी एक पंक्ति 'मन मति रंक मनोरथ राऊ' का ग्रियर्सन द्वारा किया गया अनुवाद दृष्टव्य है। ग्रियर्सन का अनुवाद है - ''My intellect is beggarly, while my ambition is imperial''। यहाँ भी 'राऊ' शब्द का अनुवाद ग्रियर्सन ने 'इंपीरियल' किया है। हमारे भारतीय संदर्भों में 'राऊ', राजा, नरेश या किसी छोटे-बड़े राज्य का राजा हो सकता है पर साम्राज्य का राजा जैसी अर्थछवि 'राऊ' से नहीं निकलती। पर ग्रियर्सन ने साम्राज्य के अर्थ में इस शब्द को ढाल दिया। 'राऊ' के अर्थ का गियर्सन द्वारा किया गया यह विस्तार उनकी अपनी साम्राज्यी अवस्थिति को और स्पष्ट कर देता है। अनुवाद करने में राजनीति कैसे काम करती है या अनुवादक की राजनैतिक अवस्थिति कैसे पाठ को प्रभावित कर सकती है, यहाँ हम इन दृष्टांतों द्वारा समझ सकते हैं।
37. हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास, जॉर्ज अब्राहम ग्रिर्यसन, अनुवाद: किशोरीलाल गुप्त, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, 1961, पृष्ठ - 62-63
38. वही, पाद-टिप्पणी संख्या: 1, पृष्ठ - 62
39. कबीर एंड हिज फालोवर्स, एफ.ई.के., हिंदी की सैद्धांतिक समीक्षा, रामाधर शर्मा, अनुसंधान प्रकाशन, 1962, पृष्ठ - 13 पर उद्धृत
40. हिंदी साहित्य का इतिहास, एफ.ई.के., संपादन एवं अनुवाद - सदानंद शाही, लोकायत प्रकाशन, 1988, पृष्ठ - 109
41. वही, भूमिका, पृष्ठ - 11
42. निम्नवर्गीय प्रसंग, भाग-एक, संपादक - शाहिद अमीन, ज्ञानेंद्र पांडेय, राजकमल प्रकाशन, 1995, पृष्ठ - 9
43. द नेशनलाइजेशन ऑफ हिंदू ट्रेडिशन: भारतेंदु एंड नाइंटींथ सेंचुरी बनारस, वसुधा डालमिया, ओ.यू.पी., 1997, पृष्ठ - 150
44. हिंदुई साहित्य का इतिहास: गार्सां द तासी, अनुवादक: लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदुस्तानी एकेडमी, 1953, प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द [1847] की भूमिका, पृष्ठ - 18
45. वही, पृष्ठ - 18
46. हिंदी की सैद्धांतिक समीक्षा, रामाधर शर्मा, अनुसंधन प्रकाशन, 1962, पृष्ठ - 8, ['द रामायन ऑफ तुलसीदास' की एफ.एस. ग्राउस द्वारा लिखी भूमिका के आधार पर]
47. हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास, जॉर्ज अब्राहम ग्रिर्यसन, अनुवाद: किशोरीलाल गुप्त, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, 1961, पृष्ठ - 107
48. वही, पृष्ठ - 63
49. हिंदुई साहित्य का इतिहास: गार्सां द तासी, अनुवादक: लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिंदुस्तानी एकेडमी, 1953, द्वितीय संस्करण [1870] की पहली जिल्द की भूमिका, पृष्ठ - 78
50. हिंदी साहित्य का इतिहास, एफ.ई. के, संपादन एवं अनुवाद - सदानंद शाही, लोकायत प्रकाशन, 1988, पृष्ठ - 8
51. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, 32वाँ संस्करण, 1997, पृष्ठ - 237-238
52. वही, पृष्ठ - 232
53. उर्दू का आरंभिक युग, इतिहास का नवनिर्माण, साहित्यिक संस्कृति का पुनर्गठन, शम्सुर्रहमान फारुक़ी, राजकमल प्रकाशन, 2007, पृष्ठ - 35
54. फोर्ट विलियम कॉलेज [1800-1847 ई.], डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, परिशिष्ट 'च', हिंदी परिषद् प्रकाशन, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पृष्ठ - 206